PSEB 10th भूगोल पाठ 5 – विनिर्माण उद्योग प्रश्न उत्तर

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अभ्यास

1. बहु-विकल्पीय प्रश्नः-

(i) निम्नलिखित में से कौन सा उद्योग चूना पत्थर को कच्चे माल की तरह उपयोग करता है?
(ख) सीमेंट

(ii) निम्नलिखित में से कौन सी एजेन्सी (संस्था) सरकारी क्षेत्र के कारखानों को इस्पात प्रदान करती है?
(ख) SAIL (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड)

(iii) निम्नलिखित मे से कौन सा उद्योग बॉक्सायट को कच्चे माल के रूप में उपयोग करती है?
(क) एल्यूमीनियम शुद्धीकरण

(iv) निम्नलिखित में से कौन सा उद्योग टेलीफोन कंप्यूटर इत्यादि बनाती है?
(ग) इलेक्ट्रॉनिक (यद्यपि सूचना तकनीक भी निकट का उत्तर है, इलेक्ट्रॉनिक उद्योग अधिक व्यापक है)

(v) विनिर्माण/विनिर्मित क्षेत्र को विकास की ………. कहा जाता है।
(ख) रीढ़

(vi) भारत सरकार की ओर से कितने मेगा फूड पार्क बनाए जाते हैं?
(ख) 42 (यह संख्या पाठ में दी गई है और समय के साथ बदल सकती है)

(vii) बी.एच.इ.एल का पूरा नाम क्या है?
(क) भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड

(viii) चीनी उद्योग, ………. उद्योग है।
(ख) कृषि आधारित (और कच्चा माल आधारित भी, लेकिन कृषि आधारित अधिक सटीक है)

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30 शब्दों तक दीजिए:-

(i) निर्माण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर: निर्माण या विनिर्माण वह प्रक्रिया है जिसमें कच्चे माल को विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा अधिक उपयोगी और मूल्यवान निर्मित वस्तुओं में बदला जाता है, जैसे लकड़ी से कागज या गन्ने से चीनी बनाना।

(ii) किसी उद्योग के स्थानीयकरण के लिए काम करते कोई तीन भौतिक तत्वों के नाम बताएं?
उत्तर: किसी उद्योग के स्थानीयकरण के लिए महत्वपूर्ण तीन भौतिक तत्व हैं: कच्चा माल, ऊर्जा के साधन (जैसे कोयला या बिजली), और जल आपूर्ति।

(iii) किसी उद्योग की स्थापना के लिए ज़रूरी कोई तीन मानवी तत्व बताएं?
उत्तर: किसी उद्योग की स्थापना के लिए आवश्यक तीन मानवीय तत्व हैं: कुशल और गैर-कुशल श्रमिक, पूंजी (निवेश), और बाज़ार (मंडी)।

(iv) प्रारंभिक उद्योग क्या होते हैं? उदाहरण दीजिए।
उत्तर: प्रारंभिक या बुनियादी उद्योग (Basic Industries) वे उद्योग होते हैं जिनके उत्पाद अन्य उद्योगों के लिए कच्चे माल के रूप में प्रयोग होते हैं, जैसे लोहा और इस्पात उद्योग, जिसका उत्पाद मशीनरी और निर्माण में काम आता है।

(v) सीमेंट बनाने के लिए प्रयोग में लाए गए आवश्यक कच्चे माल के बारे में बताएं?
उत्तर: सीमेंट बनाने के लिए प्रमुख आवश्यक कच्चे माल चूना पत्थर, सिलिका, एल्यूमिना और जिप्सम हैं। कोयला और विद्युत ऊर्जा भी इसके उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

(vi) उद्योगों के वर्गीकरण के प्रारंभिक आधार क्या है?
उत्तर: उद्योगों के वर्गीकरण के प्रारंभिक आधारों में व्यवसाय और पूंजी, कच्चे माल का स्रोत, स्वामित्व, और उत्पादों का स्वरूप (जैसे उपभोक्ता या बुनियादी) शामिल हैं।

(vii) कच्चे माल के आधार पर उद्योगों का वर्गीकरण करो?
उत्तर: कच्चे माल के आधार पर उद्योगों को मुख्यतः कृषि-आधारित (जैसे सूती कपड़ा, चीनी), खनिज-आधारित (जैसे लोहा-इस्पात, सीमेंट), वन-आधारित (जैसे कागज, फर्नीचर) और पशु-आधारित (जैसे चमड़ा, ऊनी वस्त्र) में वर्गीकृत किया जाता है।

(viii) भारत के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों के नाम बताएं।
उत्तर: भारत के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों में मुंबई-पुणे प्रदेश, हुगली प्रदेश, बैंगलोर-तमिलनाडु प्रदेश, गुजरात प्रदेश, छोटा नागपुर प्रदेश, और गुड़गांव-दिल्ली-मेरठ प्रदेश शामिल हैं।

(ix) फूड प्रोसेसिंग की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर: फूड प्रोसेसिंग की आवश्यकता खाद्य पदार्थों को शीघ्र खराब होने से बचाने, उन्हें अधिक समय तक संरक्षित करने, मूल्य संवर्धन करने, मौसमी उपलब्धता को वर्षभर सुनिश्चित करने और उपभोक्ताओं तक सुविधाजनक रूप में पहुँचाने के लिए होती है।

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 250 शब्दों तक दीजिए:-

(i) संयुक्त इस्पात कारखाने और मिनी इस्पात कारखाने में क्या-क्या अंतर होते है?
उत्तर: संयुक्त इस्पात कारखाने (Integrated Steel Plants) और मिनी इस्पात कारखाने (Mini Steel Mills) दोनों ही इस्पात उत्पादन के महत्वपूर्ण अंग हैं, परंतु उनकी उत्पादन प्रक्रिया, आकार, कच्चे माल के स्रोत और उत्पादों की प्रकृति में काफी अंतर होता है।

संयुक्त इस्पात कारखाने: ये बहुत बड़े पैमाने के उद्योग होते हैं जिनमें इस्पात निर्माण की सभी प्रक्रियाएँ – कच्चे लोहे के अयस्क से लेकर अंतिम इस्पात उत्पाद बनाने तक – एक ही स्थान पर संपन्न होती हैं। इनमें आमतौर पर ब्लास्ट फर्नेस का उपयोग लौह अयस्क को पिघलाकर कच्चा लोहा (pig iron) बनाने के लिए किया जाता है, जिसे बाद में विभिन्न प्रक्रियाओं (जैसे बेसिक ऑक्सीजन फर्नेस या इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस) द्वारा इस्पात में परिवर्तित किया जाता है। ये कारखाने बड़ी मात्रा में विभिन्न प्रकार के इस्पात उत्पादों का निर्माण करते हैं, जैसे कि प्लेटें, चादरें, संरचनात्मक इस्पात, रेल पटरियाँ आदि। इनके लिए कच्चे माल के रूप में लौह अयस्क, कोकिंग कोयला, चूना पत्थर और मैंगनीज की आवश्यकता होती है। इनकी स्थापना लागत बहुत अधिक होती है और इन्हें बड़े क्षेत्र तथा कुशल श्रमशक्ति की आवश्यकता होती है। ये मुख्य रूप से आधारभूत संरचना और भारी उद्योगों की इस्पात मांग को पूरा करते हैं। भारत में टाटा स्टील, सेल के विभिन्न संयंत्र इसके उदाहरण हैं।

मिनी इस्पात कारखाने: ये संयुक्त इस्पात कारखानों की तुलना में काफी छोटे होते हैं। इनकी मुख्य विशेषता यह है कि ये कच्चे लोहे के अयस्क का सीधे उपयोग नहीं करते, बल्कि इस्पात स्क्रैप (लोहे का कबाड़) और स्पंज आयरन को कच्चे माल के रूप में प्रयोग करते हैं। इनमें मुख्य रूप से इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस (EAF) या इंडक्शन फर्नेस का उपयोग इस्पात को पिघलाने और शोधित करने के लिए किया जाता है। ये कारखाने आमतौर पर विशेष प्रकार के इस्पात या हल्के संरचनात्मक इस्पात, सरिया, और बार आदि का उत्पादन करते हैं। इनकी स्थापना लागत संयुक्त इस्पात कारखानों से काफी कम होती है और इन्हें कम स्थान तथा कम पूंजी की आवश्यकता होती है। ये लचीले होते हैं और स्थानीय मांग के अनुसार उत्पादन कर सकते हैं। ये देश भर में फैले हुए हैं और स्क्रैप की उपलब्धता पर अधिक निर्भर करते हैं। ये पुनर्चक्रण को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

संक्षेप में, संयुक्त इस्पात कारखाने बड़े, व्यापक और अयस्क-आधारित होते हैं, जबकि मिनी इस्पात कारखाने छोटे, स्क्रैप-आधारित और अधिक लचीले होते हैं। दोनों ही प्रकार के कारखाने देश की इस्पात आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

(ii) उद्योगों को किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
उत्तर: भारतीय उद्योगों को अपनी स्थापना, संचालन और विकास के दौरान विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ये चुनौतियाँ आर्थिक, तकनीकी, ढांचागत और नीतिगत हो सकती हैं, जो उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता और वृद्धि को प्रभावित करती हैं।

1. ढांचागत चुनौतियाँ: अपर्याप्त और अविश्वसनीय बुनियादी ढांचा एक प्रमुख बाधा है। इसमें बिजली की अनियमित आपूर्ति और उच्च लागत, खराब सड़क और रेल नेटवर्क, बंदरगाहों पर भीड़भाड़ और अपर्याप्त भंडारण सुविधाएं शामिल हैं। ये कारक उत्पादन लागत बढ़ाते हैं और माल की आवाजाही में देरी करते हैं।

2. कच्चे माल की उपलब्धता और लागत: कई उद्योगों के लिए कच्चे माल की निरंतर और सस्ती आपूर्ति एक चुनौती है। कुछ कच्चे माल, जैसे कोकिंग कोयला या विशेष खनिज, आयात करने पड़ते हैं, जिससे लागत बढ़ती है और विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव पड़ता है। कच्चे माल की गुणवत्ता में भिन्नता भी उत्पादन को प्रभावित करती है।

3. पूंजी की कमी और वित्तीय बाधाएँ: उद्योगों, विशेष रूप से छोटे और मध्यम उद्यमों (SMEs) को पूंजी जुटाने में कठिनाई होती है। ऋण की उच्च ब्याज दरें और जटिल प्रक्रियाएं निवेश को हतोत्साहित करती हैं।

4. तकनीकी पिछड़ापन और नवाचार की कमी: कई पारंपरिक उद्योग अभी भी पुरानी तकनीकों का उपयोग कर रहे हैं, जिससे उनकी उत्पादकता और गुणवत्ता कम रहती है। अनुसंधान और विकास (R&D) में कम निवेश और नई तकनीकों को अपनाने में धीमी गति उद्योगों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनने से रोकती है।

5. कुशल श्रमशक्ति का अभाव: यद्यपि भारत में श्रमशक्ति प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, परंतु उद्योगों की आवश्यकता के अनुरूप कुशल और प्रशिक्षित श्रमिकों की कमी है। व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास कार्यक्रमों की अपर्याप्तता इस समस्या को और बढ़ाती है।

6. नियामक और नीतिगत बाधाएँ: जटिल कर प्रणालियाँ, लाइसेंसिंग में देरी, और श्रम कानूनों की कठोरता भी औद्योगिक विकास में बाधा डालती हैं। हालांकि सरकार ने ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ में सुधार के लिए कदम उठाए हैं, फिर भी कई प्रक्रियात्मक बाधाएँ मौजूद हैं।

7. पर्यावरणीय अनुपालन: बढ़ते पर्यावरणीय नियमों और उनके अनुपालन की लागत भी उद्योगों के लिए एक चुनौती है, विशेष रूप से उन उद्योगों के लिए जो प्रदूषणकारी प्रकृति के हैं।

8. वैश्विक प्रतिस्पर्धा: वैश्वीकरण के युग में भारतीय उद्योगों को अंतरराष्ट्रीय कंपनियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है, जिनके पास बेहतर तकनीक, अधिक पूंजी और बड़े पैमाने पर उत्पादन की क्षमता होती है।

इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार और उद्योग जगत को मिलकर काम करने की आवश्यकता है, जिसमें बुनियादी ढांचे में निवेश, कौशल विकास, तकनीकी उन्नयन और नीतिगत सुधार शामिल हैं।

(iii) देश में विनिर्माण सामर्थ्य में आए उछाल हेतु किन-किन नई गतिविधियों का हाथ/योगदान है?
उत्तर: हाल के दशकों में भारत के विनिर्माण सामर्थ्य (Manufacturing Capability) में महत्वपूर्ण उछाल देखने को मिला है। इस वृद्धि के पीछे कई नई गतिविधियों और नीतिगत पहलों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिन्होंने औद्योगिक विकास को गति प्रदान की है।

1. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG सुधार): 1991 में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व के लिए खोल दिया। लाइसेंस राज की समाप्ति, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के नियमों में ढील और व्यापार बाधाओं को कम करने से विनिर्माण क्षेत्र में निवेश और प्रतिस्पर्धा बढ़ी। विदेशी कंपनियों के आगमन से नई तकनीकें और प्रबंधन कौशल भारत में आए।

2. ‘मेक इन इंडिया’ पहल: सरकार द्वारा शुरू की गई ‘मेक इन इंडिया’ पहल का उद्देश्य भारत को एक वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनाना है। इसने घरेलू और विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश करने और उत्पादन इकाइयाँ स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया है। इसके तहत विभिन्न क्षेत्रों में विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए नीतियां बनाई गई हैं।

3. बुनियादी ढांचे का विकास: सड़कों, राजमार्गों (जैसे स्वर्णिम चतुर्भुज), बंदरगाहों, हवाई अड्डों और समर्पित माल गलियारों (Dedicated Freight Corridors) जैसे बुनियादी ढांचे में निवेश से माल की आवाजाही सुगम हुई है और लॉजिस्टिक्स लागत में कमी आई है, जिससे विनिर्माण इकाइयों की दक्षता बढ़ी है।

4. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) में वृद्धि: उदार FDI नीतियों के कारण विभिन्न विनिर्माण क्षेत्रों, विशेष रूप से ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्यूटिकल्स और रक्षा उत्पादन में महत्वपूर्ण विदेशी निवेश आया है। इससे न केवल पूंजी प्रवाह बढ़ा है, बल्कि नई तकनीकें और वैश्विक बाजार तक पहुंच भी सुलभ हुई है।

5. औद्योगिक गलियारों का विकास: दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा (DMIC) जैसे कई औद्योगिक गलियारों की योजना बनाई जा रही है और उन्हें विकसित किया जा रहा है। इन गलियारों का उद्देश्य विश्व स्तरीय बुनियादी ढांचा, कनेक्टिविटी और व्यावसायिक वातावरण प्रदान करके विनिर्माण क्लस्टर बनाना है।

6. कौशल विकास कार्यक्रम: ‘स्किल इंडिया’ जैसी पहलों के माध्यम से युवाओं को उद्योगों की आवश्यकता के अनुसार कौशल प्रदान करने पर जोर दिया जा रहा है, ताकि कुशल श्रमशक्ति की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।

7. डिजिटल प्रौद्योगिकी और ऑटोमेशन को अपनाना: कई विनिर्माण इकाइयाँ अब इंडस्ट्री 4.0 प्रौद्योगिकियों जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT), रोबोटिक्स और डेटा एनालिटिक्स को अपना रही हैं, जिससे उत्पादन प्रक्रियाओं में दक्षता, गुणवत्ता और लचीलापन बढ़ा है।

8. स्टार्टअप इकोसिस्टम का विकास: भारत में तेजी से बढ़ते स्टार्टअप इकोसिस्टम ने भी विनिर्माण क्षेत्र में नवाचार और नए उत्पादों के विकास को बढ़ावा दिया है, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिक वाहन और चिकित्सा उपकरण जैसे क्षेत्रों में।

इन गतिविधियों के सम्मिलित प्रभाव से भारत के विनिर्माण सामर्थ्य में वृद्धि हुई है, हालांकि अभी भी वैश्विक मानकों तक पहुंचने के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है।

(iv) उद्योग पर्यावरण को कैसे प्रदूषित करते हैं?
उत्तर: उद्योग निस्संदेह आर्थिक विकास और रोजगार सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, परंतु उनकी गतिविधियाँ पर्यावरण पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव भी डाल सकती हैं, जिससे विभिन्न प्रकार का प्रदूषण फैलता है।

1. वायु प्रदूषण:

  • औद्योगिक उत्सर्जन: कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुआं सल्फर डाइऑक्साइड (SO2), नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), और पार्टिकुलेट मैटर (PM2.5 और PM10) जैसी हानिकारक गैसों और कणों को वायुमंडल में छोड़ता है। ये रसायन अम्ल वर्षा, श्वसन संबंधी बीमारियाँ और स्मॉग का कारण बनते हैं।

  • वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOCs): पेंट, सॉल्वैंट्स और रासायनिक उद्योगों से निकलने वाले VOCs ओजोन परत के क्षरण और स्वास्थ्य समस्याओं में योगदान करते हैं।

  • जहरीली गैसों का रिसाव: कभी-कभी औद्योगिक दुर्घटनाओं के कारण भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटनाएं घटित होती हैं, जिनमें जहरीली गैसों के रिसाव से जान-माल की भारी हानि होती है।

2. जल प्रदूषण:

  • औद्योगिक अपशिष्ट जल: कई उद्योग अपने अनुपचारित या आंशिक रूप से उपचारित अपशिष्ट जल को सीधे नदियों, झीलों या समुद्र में छोड़ देते हैं। इस जल में भारी धातुएँ (जैसे पारा, सीसा, कैडमियम), रसायन, अम्ल, क्षार, तेल और ग्रीस जैसे प्रदूषक होते हैं जो जलीय जीवन को नष्ट करते हैं और जल स्रोतों को पीने योग्य नहीं रहने देते।

  • ऊष्मीय प्रदूषण: बिजली संयंत्र और कुछ उद्योग अपने शीतलन प्रणालियों से गर्म पानी को जल निकायों में छोड़ते हैं, जिससे पानी का तापमान बढ़ जाता है। यह बढ़ा हुआ तापमान जलीय जीवों के लिए हानिकारक होता है और पानी में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा को कम कर देता है।

3. मृदा प्रदूषण:

  • ठोस अपशिष्ट का निपटान: औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले ठोस अपशिष्ट, जैसे फ्लाई ऐश, धातु स्क्रैप, रासायनिक कीचड़ आदि को अनुचित तरीके से भूमि पर फेंकने से मृदा प्रदूषित होती है। ये प्रदूषक मिट्टी की उर्वरता को कम करते हैं और भूजल को भी दूषित कर सकते हैं।

  • रासायनिक रिसाव: औद्योगिक क्षेत्रों में रसायनों के भंडारण या परिवहन के दौरान होने वाले रिसाव से मिट्टी जहरीली हो जाती है।

4. ध्वनि प्रदूषण:

  • मशीनरी और उपकरण: कारखानों में चलने वाली भारी मशीनरी, जनरेटर, और अन्य उपकरण उच्च स्तर का ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न करते हैं, जो श्रमिकों के स्वास्थ्य और आसपास के निवासियों की शांति को प्रभावित करता है। इससे श्रवण हानि, तनाव और अन्य स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं।

इन प्रदूषणों के दीर्घकालिक प्रभाव न केवल मानव स्वास्थ्य बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता के लिए भी अत्यंत हानिकारक हैं। इसलिए, उद्योगों द्वारा पर्यावरण संरक्षण नियमों का सख्ती से पालन करना और प्रदूषण नियंत्रण तकनीकों को अपनाना अनिवार्य है।

(v) उद्योगों द्वारा पर्यावरण में गिरावट होने के प्रभाव कम करने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
उत्तर: उद्योगों द्वारा होने वाले पर्यावरणीय गिरावट के प्रभावों को कम करने के लिए एक बहु-आयामी और समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें तकनीकी, नीतिगत और व्यवहारिक परिवर्तन शामिल हों। निम्नलिखित प्रमुख कदम उठाए जा सकते हैं:

1. प्रदूषण नियंत्रण प्रौद्योगिकियों का उपयोग:

  • वायु प्रदूषण नियंत्रण: कारखानों की चिमनियों में इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रेसिपिटेटर (ESPs), फैब्रिक फिल्टर (बैगहाउस), वेट स्क्रबर और कैटेलिटिक कन्वर्टर्स जैसे उपकरण लगाकर हानिकारक गैसों और कणों के उत्सर्जन को कम करना।

  • जल प्रदूषण नियंत्रण: औद्योगिक अपशिष्ट जल के उपचार के लिए एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (ETPs) और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STPs) की स्थापना और प्रभावी संचालन सुनिश्चित करना। इसमें प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक उपचार शामिल होने चाहिए ताकि उपचारित जल को सुरक्षित रूप से छोड़ा जा सके या पुनः उपयोग किया जा सके।

  • ठोस अपशिष्ट प्रबंधन: “कम करें, पुनः उपयोग करें, पुनर्चक्रण करें” (3R) के सिद्धांत को अपनाना। खतरनाक औद्योगिक अपशिष्टों के सुरक्षित निपटान के लिए उचित लैंडफिल साइटों का विकास करना और अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पादन जैसी तकनीकों को बढ़ावा देना।

2. स्वच्छ उत्पादन प्रक्रियाएं और प्रौद्योगिकियां अपनाना:

  • ऐसी उत्पादन प्रक्रियाओं और प्रौद्योगिकियों का चयन करना जो कम अपशिष्ट उत्पन्न करती हों, कम ऊर्जा और कच्चे माल की खपत करती हों, और कम प्रदूषणकारी हों।

  • कोयले के स्थान पर स्वच्छ ईंधनों जैसे प्राकृतिक गैस, सौर ऊर्जा या पवन ऊर्जा का उपयोग करना।

  • जल संरक्षण तकनीकों को अपनाना और औद्योगिक प्रक्रियाओं में पानी का पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग बढ़ाना।

3. कड़े पर्यावरणीय नियम और उनका प्रभावी कार्यान्वयन:

  • सरकार द्वारा प्रदूषण नियंत्रण के लिए कड़े मानक और नियम बनाना तथा उनके उल्लंघन पर भारी दंड का प्रावधान करना।

  • पर्यावरण निगरानी एजेंसियों को मजबूत करना और नियमित रूप से औद्योगिक इकाइयों का निरीक्षण सुनिश्चित करना।

  • पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) को किसी भी नई औद्योगिक परियोजना की मंजूरी से पहले अनिवार्य और पारदर्शी बनाना।

4. संसाधन दक्षता और अपशिष्ट न्यूनीकरण:

  • कच्चे माल का इष्टतम उपयोग सुनिश्चित करना और उत्पादन प्रक्रिया में बर्बादी को कम करना।

  • औद्योगिक सहजीवन (Industrial Symbiosis) को बढ़ावा देना, जहाँ एक उद्योग का अपशिष्ट दूसरे उद्योग के लिए कच्चा माल बन सके।

5. हरित पट्टी का विकास:

  • औद्योगिक क्षेत्रों के आसपास वृक्षारोपण और हरित पट्टियों का विकास करना जो प्रदूषकों को अवशोषित करने और वायु गुणवत्ता में सुधार करने में मदद करें।

6. जन जागरूकता और कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR):

  • उद्योगों, श्रमिकों और आम जनता में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाना।

  • कंपनियों को अपनी CSR गतिविधियों के तहत पर्यावरण संरक्षण परियोजनाओं में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना।

इन उपायों को समग्र रूप से लागू करके उद्योगों द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को काफी हद तक कम किया जा सकता है और सतत औद्योगिक विकास सुनिश्चित किया जा सकता है।

(vi) भारत के सूती कपड़ा उद्योग पर विस्तृत नोट लिखिए।
उत्तर: सूती कपड़ा उद्योग भारत के सबसे पुराने, सबसे बड़े और सबसे महत्वपूर्ण संगठित उद्योगों में से एक है। इसका भारतीय अर्थव्यवस्था, रोजगार और निर्यात में महत्वपूर्ण योगदान है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: प्राचीन भारत में हाथ से सूत कातने और हथकरघों पर कपड़ा बुनने की उत्कृष्ट परंपरा रही है। भारतीय सूती वस्त्र अपनी गुणवत्ता के लिए विश्व प्रसिद्ध थे। हालांकि, ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, इंग्लैंड की मिलों में बने सस्ते कपड़ों की प्रतिस्पर्धा के कारण पारंपरिक भारतीय कपड़ा उद्योग को भारी नुकसान हुआ। आधुनिक सूती मिल उद्योग की शुरुआत 19वीं सदी के मध्य में मुंबई में हुई।

स्थानीयकरण के कारक: प्रारंभ में, सूती कपड़ा मिलें मुख्य रूप से महाराष्ट्र और गुजरात के कपास उत्पादक क्षेत्रों में केंद्रित थीं। इसके प्रमुख कारण थे:

  • कच्चे माल की उपलब्धता: इन क्षेत्रों में कपास की प्रचुर उपलब्धता।

  • आर्द्र जलवायु: कपास की कताई और बुनाई के लिए आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है, जो धागे को टूटने से बचाती है।

  • बाजार: घनी आबादी वाले क्षेत्रों के कारण स्थानीय बाजार की उपलब्धता।

  • परिवहन: बंदरगाहों की निकटता से आयात-निर्यात की सुविधा।

  • श्रमिक: सस्ते और कुशल श्रमिक आसानी से उपलब्ध थे।

  • पूंजी: व्यापारिक समुदायों द्वारा पूंजी निवेश।
    हालांकि, अब यह उद्योग देश के अन्य भागों में भी फैल गया है, जहाँ सिंचाई सुविधाओं के विकास से कपास की खेती होने लगी है और बिजली की उपलब्धता बढ़ी है।

उत्पादन प्रक्रिया और संरचना: सूती कपड़ा उद्योग में कताई (spinning), बुनाई (weaving), और प्रसंस्करण (processing – रंगाई, छपाई, परिसज्जा) जैसी विभिन्न प्रक्रियाएँ शामिल हैं। कताई मिलें कपास से धागा बनाती हैं, जबकि बुनाई मिलें धागे से कपड़ा बनाती हैं। भारत में, कताई का कार्य काफी हद तक केंद्रीकृत और बड़े पैमाने पर मिलों में होता है, जबकि बुनाई का कार्य विकेंद्रीकृत है और यह संगठित मिलों, पावरलूम (विद्युत करघा) और हथकरघा क्षेत्रों में होता है। हथकरघा क्षेत्र आज भी लाखों बुनकरों को रोजगार प्रदान करता है और पारंपरिक डिजाइनों को जीवित रखे हुए है।

चुनौतियाँ: भारतीय सूती कपड़ा उद्योग को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे:

  • पुरानी और अक्षम मशीनरी, विशेष रूप से बुनाई और प्रसंस्करण क्षेत्रों में।

  • बिजली की अनियमित आपूर्ति और उच्च लागत।

  • कच्चे कपास की कीमतों में उतार-चढ़ाव।

  • सिंथेटिक फाइबर से प्रतिस्पर्धा।

  • कुशल श्रमशक्ति की कमी और कम उत्पादकता।

  • वैश्विक बाजार में कड़ी प्रतिस्पर्धा।

सरकारी प्रयास: सरकार ने इस उद्योग के आधुनिकीकरण और विकास के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, जैसे टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन फंड स्कीम (TUFS)। भारत सूती धागे का एक प्रमुख निर्यातक है और सिले-सिलाए वस्त्रों के निर्यात में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह उद्योग ‘खेत से फैशन तक’ (Farm to Fashion) की पूरी मूल्य श्रृंखला को समेटे हुए है और भारतीय अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग बना हुआ है।

(vii) भारतीय उद्योगों के वर्गीकरण का फ्लोचार्ट (Flowchart) बनाओ?
उत्तर:

classification of industries

(viii) निम्नलिखित पर नोट लिखें:-

(क) खाद्य उद्योग
उत्तर: खाद्य उद्योग, जिसे खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी कहा जाता है, एक व्यापक क्षेत्र है जो कृषि, बागवानी, पशुधन और मत्स्य पालन से प्राप्त कच्चे खाद्य पदार्थों को उपभोग के लिए तैयार, सुरक्षित और मूल्यवर्धित उत्पादों में परिवर्तित करता है। यह उद्योग न केवल खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में बल्कि किसानों की आय बढ़ाने, रोजगार सृजन करने और खाद्य पदार्थों की बर्बादी को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

खाद्य प्रसंस्करण में विभिन्न प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं, जैसे सफाई, छंटाई, ग्रेडिंग, पिसाई, मिश्रण, पाश्चुरीकरण, नसबंदी, किण्वन, सुखाना, जमाना, डिब्बाबंदी, पैकेजिंग आदि। इन प्रक्रियाओं का उद्देश्य खाद्य पदार्थों की शेल्फ लाइफ बढ़ाना, उन्हें अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाना, तथा उपभोक्ताओं के लिए सुविधाजनक बनाना है।

भारत में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग तेजी से विकसित हो रहा है। इसके प्रमुख उप-क्षेत्रों में अनाज प्रसंस्करण (आटा, चावल, दालें), फल और सब्जी प्रसंस्करण (जूस, जैम, अचार, डिब्बाबंद उत्पाद), डेयरी प्रसंस्करण (दूध, पनीर, मक्खन, आइसक्रीम), मांस और पोल्ट्री प्रसंस्करण, मछली प्रसंस्करण, बेकरी और कन्फेक्शनरी उत्पाद, और पेय पदार्थ शामिल हैं।

इस उद्योग का महत्व कई गुना है:

  • फसल विविधीकरण को बढ़ावा: यह किसानों को पारंपरिक फसलों के अलावा फल, सब्जियां और अन्य बागवानी फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित करता है।

  • मूल्य संवर्धन: कच्चे कृषि उत्पादों में मूल्य जोड़कर किसानों को बेहतर रिटर्न मिलता है।

  • रोजगार सृजन: यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर पैदा करता है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में।

  • खाद्य बर्बादी में कमी: उचित प्रसंस्करण और भंडारण से कटाई के बाद होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।

  • निर्यात क्षमता: प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों का निर्यात विदेशी मुद्रा अर्जित करने में मदद करता है।

सरकार ‘मेगा फूड पार्क’ जैसी योजनाओं और अन्य प्रोत्साहनों के माध्यम से खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के विकास को बढ़ावा दे रही है ताकि इसकी पूरी क्षमता का दोहन किया जा सके।

(ख) सागरी जहाज़ निर्माण उद्योग
उत्तर: सागरी जहाज निर्माण उद्योग (Ship Building Industry) एक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण और पूंजी-गहन उद्योग है जो विभिन्न प्रकार के समुद्री जहाजों का डिजाइन, निर्माण, मरम्मत और रूपांतरण करता है। इन जहाजों का उपयोग माल परिवहन, यात्री यातायात, रक्षा, मछली पकड़ने, अपतटीय तेल और गैस अन्वेषण तथा अन्य समुद्री गतिविधियों के लिए किया जाता है।

भारत का एक लंबा समुद्री इतिहास रहा है और जहाज निर्माण की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। आधुनिक जहाज निर्माण उद्योग ने स्वतंत्रता के बाद गति पकड़ी। देश का लगभग 90% अंतर्राष्ट्रीय व्यापार समुद्री मार्गों से होता है, जो जहाज निर्माण और मरम्मत उद्योग के महत्व को रेखांकित करता है।

भारत में प्रमुख जहाज निर्माण यार्ड सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में हैं। कुछ प्रमुख सरकारी कंपनियां हैं:

  • हिंदुस्तान शिपयार्ड लिमिटेड (HSL), विशाखापत्तनम: यह भारत के सबसे पुराने और सबसे बड़े शिपयार्ड में से एक है, जो विभिन्न प्रकार के जहाजों का निर्माण और मरम्मत करता है।

  • कोचीन शिपयार्ड लिमिटेड (CSL), कोचीन: यह भारत का सबसे बड़ा शिपयार्ड है और इसने भारत के पहले स्वदेशी विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत का निर्माण किया है। यह वाणिज्यिक जहाजों, अपतटीय संरचनाओं और रक्षा जहाजों का निर्माण और मरम्मत करता है।

  • गार्डन रीच शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स (GRSE), कोलकाता: यह मुख्य रूप से भारतीय नौसेना और तटरक्षक बल के लिए युद्धपोतों और अन्य जहाजों का निर्माण करता है।

  • गोवा शिपयार्ड लिमिटेड (GSL), गोवा: यह भी रक्षा क्षेत्र के लिए विभिन्न प्रकार के जहाजों का निर्माण करता है।
    निजी क्षेत्र में भी कई शिपयार्ड सक्रिय हैं जो छोटे से मध्यम आकार के जहाजों और नौकाओं का निर्माण करते हैं।

भारतीय जहाज निर्माण उद्योग को वैश्विक प्रतिस्पर्धा, तकनीकी उन्नयन की आवश्यकता और कच्चे माल (विशेष रूप से विशेष ग्रेड स्टील) की लागत जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सरकार इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न नीतिगत उपाय कर रही है, जिसमें वित्तीय सहायता और ‘मेक इन इंडिया’ पहल के तहत स्वदेशी उत्पादन पर जोर देना शामिल है। यह उद्योग न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा और व्यापार के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह कुशल रोजगार के अवसर भी प्रदान करता है।

(ग) मेगा फूड पार्क
उत्तर: मेगा फूड पार्क (Mega Food Parks) योजना भारत सरकार के खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य कृषि उत्पादों के लिए खेत से बाजार तक एक एकीकृत मूल्य श्रृंखला (value chain) बनाना है। इस योजना का मुख्य लक्ष्य खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में आधुनिक बुनियादी ढांचे का विकास करना, खाद्य पदार्थों की बर्बादी को कम करना, किसानों की आय में वृद्धि करना और रोजगार के अवसर सृजित करना है।

मेगा फूड पार्क एक ‘क्लस्टर’ आधारित दृष्टिकोण पर काम करते हैं। प्रत्येक मेगा फूड पार्क में निम्नलिखित प्रमुख घटक होते हैं:

  1. प्राथमिक प्रसंस्करण केंद्र (Primary Processing Centres – PPCs): ये केंद्र खेतों के निकट या संग्रह बिंदुओं पर स्थापित किए जाते हैं। यहाँ फलों, सब्जियों और अन्य कृषि उत्पादों की सफाई, छंटाई, ग्रेडिंग, और प्रारंभिक प्रसंस्करण (जैसे गूदा निकालना, काटना) किया जाता है।

  2. संग्रह केंद्र (Collection Centres – CCs): ये पीपीसी से प्रसंस्कृत सामग्री या सीधे किसानों से उपज एकत्र करते हैं।

  3. केंद्रीय प्रसंस्करण केंद्र (Central Processing Centre – CPC): यह मेगा फूड पार्क का मुख्य केंद्र होता है जहाँ उन्नत प्रसंस्करण सुविधाएँ, कोल्ड स्टोरेज, गोदाम, गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशालाएँ, अनुसंधान एवं विकास केंद्र और अन्य सहायक बुनियादी ढांचा उपलब्ध होता है। यहाँ विभिन्न प्रकार के मूल्यवर्धित खाद्य उत्पाद तैयार किए जाते हैं।

  4. कोल्ड चेन और लॉजिस्टिक्स: पार्क में उत्पादों को ताजा रखने और उनके परिवहन के लिए कोल्ड स्टोरेज, रेफ्रीजरेटेड वैन और कुशल लॉजिस्टिक्स नेटवर्क की व्यवस्था होती है।

मेगा फूड पार्क योजना के तहत, सरकार वित्तीय सहायता प्रदान करती है ताकि निजी उद्यमी, किसान संगठन या राज्य सरकार की एजेंसियां इन पार्कों को स्थापित और संचालित कर सकें। ये पार्क खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों को एक ही स्थान पर सभी आवश्यक बुनियादी ढांचा और सहायता सेवाएँ प्रदान करते हैं, जिससे उनकी परिचालन लागत कम होती है और दक्षता बढ़ती है।

पंजाब में, लुधियाना में पंजाब एग्रो इंडस्ट्रीज कारपोरेशन लिमिटेड (PAICL) द्वारा एक मेगा फूड पार्क स्थापित किया गया है, और फाजिल्का तथा फगवाड़ा में भी ऐसे पार्क मौजूद हैं। इन पार्कों से कृषि आधारित उद्योगों को प्रोत्साहन मिल रहा है और क्षेत्र के किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य प्राप्त करने में मदद मिल रही है।

(घ) उद्योगों को पेश आती चुनौतियां
उत्तर: भारतीय उद्योग, जो देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, विभिन्न प्रकार की जटिल चुनौतियों का सामना करते हैं जो उनकी वृद्धि, उत्पादकता और वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता को प्रभावित करती हैं। इन चुनौतियों का समाधान करना सतत औद्योगिक विकास के लिए अनिवार्य है।

1. बुनियादी ढांचे की कमी: अपर्याप्त और अविश्वसनीय बुनियादी ढांचा, जैसे बिजली की अनियमित आपूर्ति, खराब परिवहन नेटवर्क (सड़कें, रेलवे, बंदरगाह), और अपर्याप्त भंडारण सुविधाएं, उद्योगों की परिचालन लागत को बढ़ाते हैं और उनकी दक्षता को कम करते हैं।

2. कच्चे माल की उपलब्धता और लागत: कई उद्योगों को उच्च गुणवत्ता वाले कच्चे माल की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करने में कठिनाई होती है। कुछ महत्वपूर्ण कच्चे मालों के लिए आयात पर निर्भरता लागत को बढ़ाती है और आपूर्ति श्रृंखला में अनिश्चितता लाती है।

3. पूंजी तक पहुंच और वित्तपोषण: विशेष रूप से छोटे और मध्यम उद्यमों (SMEs) के लिए पूंजी जुटाना एक बड़ी चुनौती है। ऋण की उच्च ब्याज दरें, जटिल बैंकिंग प्रक्रियाएं और उद्यम पूंजी की सीमित उपलब्धता नए निवेश और विस्तार को बाधित करती है।

4. प्रौद्योगिकी और नवाचार: कई पारंपरिक उद्योग अभी भी पुरानी और अक्षम प्रौद्योगिकियों का उपयोग कर रहे हैं। अनुसंधान एवं विकास (R&D) में कम निवेश और नई तकनीकों को अपनाने में धीमी गति भारतीय उद्योगों को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनने से रोकती है।

5. कुशल श्रमशक्ति का अभाव: यद्यपि भारत में श्रमशक्ति प्रचुर है, उद्योगों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप कुशल और प्रशिक्षित श्रमिकों की कमी है। व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास कार्यक्रमों की गुणवत्ता और पहुंच में सुधार की आवश्यकता है।

6. नियामक और नीतिगत बाधाएँ: जटिल कर संरचनाएं, लाइसेंसिंग और परमिट प्राप्त करने में देरी, और कई बार अस्पष्ट नियामक ढांचा व्यापार करने में कठिनाइयाँ पैदा करते हैं। हालांकि ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ में सुधार हुआ है, फिर भी कई प्रक्रियात्मक बाधाएँ मौजूद हैं।

7. पर्यावरणीय अनुपालन: बढ़ते पर्यावरण संरक्षण नियमों और उनके अनुपालन की लागत, विशेष रूप से प्रदूषणकारी उद्योगों के लिए, एक महत्वपूर्ण चुनौती है।

8. वैश्विक प्रतिस्पर्धा: वैश्वीकरण के कारण भारतीय उद्योगों को अंतरराष्ट्रीय कंपनियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है, जिनके पास अक्सर बेहतर तकनीक, अधिक पूंजी और बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं का लाभ होता है।

इन चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए सरकार, उद्योग जगत और अन्य हितधारकों के बीच सहयोगात्मक प्रयासों की आवश्यकता है, जिसमें नीतिगत सुधार, बुनियादी ढांचे में निवेश, कौशल विकास और नवाचार को बढ़ावा देना शामिल है।

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  • vivkaushal23@hotmail.com

    Vivek Kaushal is a passionate educator with over 14 years of teaching experience. He holds an MCA and B.Ed. and is certified as a Google Educator Level 1 and Level 2. Currently serving as the Principal at Vivek Public Sr. Sec. School, Vivek is dedicated to fostering a dynamic and innovative learning environment for students. Apart from his commitment to education, he enjoys playing chess, painting, and cricket, bringing a creative and strategic approach to both his professional and personal life.

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